प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इंदिरा गांधी के बाद देश का सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री कहा जाने लगा है। अब तो विपक्ष के वरिष्ठ नेता भी इस बात को मानने लगे हैं। हाल ही में कांग्रेस के एक बहुत ही वरिष्ठ नेता ने नरेंद्र मोदी को ‘सबसे प्रभावशाली राजनीतिक नेता’ की उपाधि दी थी।
प्रधानमंत्री के लिए इस्तेमाल हो रहे इस सूत्र वाक्य में अब किसी शक की गुंजाइश नहीं रह गयी है, बल्कि ये एक तथ्य है। 2014 के चुनाव में किसी राजनीतिक दल को 29 साल बाद लोकसभा में अकेले दम पर स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद ऐसा माना जाना स्वाभाविक था, लेकिन पीढ़ियों बाद किसी राजनीतिक दल के इतने प्रभावशाली वर्चस्व को स्वीकार करने में विरोधियों को कुछ वक्त तो लगता ही है। बात यहीं खत्म नहीं हुई थी। हाल ही में उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में हुए चुनावों के नतीजों ने एक बार फिर इस प्रभाव और वर्चस्व को स्थापित किया है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की यही खूबी है कि जब ये परिवर्तन करने पर आए तो साधारण सी शुरुआत करने वाले व्यक्ति को भी देश को सर्वोच्च पद पर बैठा दे। लेकिन हमें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि विश्व इतिहास में सबसे विशाल और सबसे विविध हमारा लोकतंत्र ही ये भी सिखाता है कि ऐसा अद्भुत करिश्मा करने के लिए किसी के पास असाधारण गुण और काबिलियत होना बेहद जरूरी है।
कई मौकों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर, चीन के नेता देंग शियाओपिंग और सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली कुआन जैसे विश्व के प्रसिद्ध राजनेताओं के साथ तुलना की जाती रही है। हकीकत भी यही है कि मोदी में इन सभी के कुछ न कुछ गुण तो हैं ही, जिसके चलते वे न सिर्फ भारतीय राजनीति के सबसे कद्दावर नेता के रूप में सामने आए हैं बल्कि पूरी दुनिया के लिए भी वो सबसे प्रभावशाली राजनेतिज्ञों में से एक माने जाते हैं।
रीगन की तरह ही प्रधानमंत्री मोदी आम लोगों के सामने एक मंझे हुए और स्वाभाविक वक्ता या ओरेटर हैं निजी तौर पर एक शांत व्यवहार वाले व्यक्ति हैं तो सफलतापूर्वक अपनी पार्टी के परंपरागत आधार के अलावा भी वोटरों के साथ सीधा संवाद कायम करने में माहिर हैं। मार्ग्रेट थैचर की तरह मोदी एक साहसी व्यक्ति हैं, जो मुश्किल से मुश्किल हालात का बिना किसी भय के आत्मविश्वास के साथ सामना कर सकते हैं।
चीन के नेता देंग की तरह ही मोदी ने राजनीतिक रुकावटों को दूर करने और भारत जैसे विशाल देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने और निवेश बढ़ाने के मकसद से अद्भुत दृढ़ता का परिचय दिया है।
और सिंगापुर के ली कुआन की तरह ही नरेंद्र मोदी भारत को तीसरी दुनिया के देश से निकालकर पहली दुनिया का देश बनाने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी इस परिकल्पना को देश के सामने रखा है, निजी ईमानदारी का परिचय दिया है और पूरी दुनिया में एक मंझे हुए प्रभावशाली राजनीतिज्ञ के तौर पर अपनी पहचान स्थापित की है।
पूरी दुनिया में बसे हुए भारतीय समुदाय को अद्वितीय ढंग से उद्वेलित किया है। एक तरफ नरेंद्र मोदी विदेश नीति पर फोकस प्रधानमंत्री की छवि स्थापित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ वे देश में लोगों से सीधा और प्रभावी संवाद कर रहे हैं। रेडियो पर प्रसारित उनकी “मन की बात” से 1940 के दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट की याद ताजा हो जाती है, जिसके दम पर रूज़वेल्ट लगातार चौथी बार राष्ट्रपति चुने गए थे।
नीतियों के स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े और साहसिक कदम उठाने की दृढ़ता दिखायी है। ऐसे ही साहसिक कदमों में एक था नोटबंदी, जिसकी न सिर्फ बहुत से मीडिया ने बल्कि लुटियन दिल्ली के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भी खूब आलोचना की। बहुत ही अचरज की बात थी जब अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने पहले तो ये कहकर नोटबंदी पर प्रतिक्रिया से बचने की कोशिश की कि वे इसके असर का आंकलन करेंगे, फिर बहुत ही सावधानीपूर्वक इसे अच्छा कदम बताया। कुछ घरेलू टिप्पणीकारों ने तो इसे आर्थिक आपदा तक करार दे दिया, लेकिन जब आंकड़े सामने आए तो ये सबके सब मुंह छिपाते नजर आए।
मैं हर महीने अपने चुनाव क्षेत्र में औसतन दो हफ्ते बिताता हूँ। वहां भी बहुतायत लोग इस कदम से बेहद उत्साहित नजर आए। उनकी नजर में यह कदम कालेधन पर असली प्रहार था। हालांकि इसके प्रभाव को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए अभी कुछ नीतिगत सुधारों की जरूरत है। मुझे इस बात पर भी आश्चर्य नहीं हुआ जब देश के दो-एक सबसे सफल मुख्यमंत्रियों ने भी नोटबंदी के कदम का सावधानीपूर्वक समर्थन किया।
इसी तरह, देश में राजनीतिक चंदे की साफ-सफाई पर बरसों से बहस तो हो रही थी लेकिन किसी भी सरकार ने इस दिशा में किया कुछ नहीं। इस साल के बजट में राजनीति को लेकर की गयी घोषणाएं बेहद प्रभावी साबित होंगी जब उन पर अमल होगा।
मैं इस मुद्दे का कई वर्षों से विश्लेषण करता रहा हूं और चुनाव आयोग और विधि आयोग को इस बारे में स्पष्ट प्रस्ताव के साथ लिखता रहा हूं। सभी बड़े प्रकाशनों में इस विषय पर मेरे लेख भी प्रकाशित हुए हैं, इसलिए जब राजनीतिक चंदे के बारे में घोषणा की गयी, तो सबसे ज्यादा प्रसन्न मैं ही था।
ये विडंबना है कि उस नकद राजनीतिक चंदे की सीमा बेहद कम किए जाने की कुछ लोग आलोचना कर रहे हैं, जिसमें दानकर्ता का नाम बताना जरूरी नहीं होता। बजट पेश होने से कुछ सप्ताह पहले जब चुनाव आयोग ने ऐसा प्रस्ताव भेजा था तब तो सब तरफ से इस प्रस्ताव को समर्थन मिला था, लेकिन इनमें से ही कुछ लोग अब इसका ये कहकर विरोध कर रहे हैं कि ये सीमा तो बेहद कम है।
21वीं सदी का भारत तेजी से बिलकुल अलग किस्म के परिदृश्य में उभर रहा है जिसकी हमारे बहुत सारे राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और नीति निर्धारकों को आदत ही नहीं है। आज के युवा को हमसे कहीं ज्यादा उम्मीदें हैं, और नरेंद्र मोदी की स्पष्ट तौर पर इन आकांक्षाओँ पर मजबूत पकड़ है। बेहतर हो कि दूसरे नेता भी इसका अनुसरण करें।
(बिजयंत जे पांडा एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं और मौजूदा लोकसभा में सांसद हैं। वे ओडिशा के केंद्रपाड़ा निर्वाचन क्षेत्र से बीजू जनता दल के सांसद हैं। इससे पहले वे 2000 से 2009 तक राज्यसभा के सदस्य रहे हैं)