मंत्री परिषद के मेरे साथी डॉक्टर हर्षवर्धन जी, मंचस्थ सभी महानुभाव और आयुर्वेद को समर्पित उपस्थित सभी वरिष्ठ महानुभाव यहाँ घोषणा हो रही थी कि तीन दिन यहाँ मंथन हुआ है और मंथन के बाद अमृत मिला है; तो मैं भी इस अमृत को लेने आया हूँ, कुछ बूँद मेरे नसीब में भी आएँगे, अब पूरा कुंभ भरकर के मिलने की संभावना रही है कि नहीं मुझे नहीं मालूम नहीं है। आपकी इस बार एक थीम है कि स्वास्थ्य चुनौतियां और आयुर्वेद, ऐसा ही है ना कुछ! आपने बहुत सारी बातें की होगी लेकिन मुझे सबसे बड़ी challenge लगती है, वो ये लग रहा है कि हम जो आयुर्वेद से जुड़े हुए लोग है वो ही सबसे बड़ा चैलेंज है। शत-प्रतिशत आयुर्वेद को समर्पित, ऐसे आयुर्वेद के डॉक्टर मिलना मुश्किल हो गया है, उसको खुद को लगता है भई अब इससे तो कोई चलने वाली गाड़ी नहीं है। अब तो एलोपैथी के रास्ते पर जाना ही पड़ेगा और वो मरीज को भी बता देता है कि ऐसा करते है शुरू के तीन दिन तो एलोपैथी ले लो बाद में आयुर्वेद का देखेंगें। मैं समझता हूँ कि आयुर्वेद के सामने ये सबसे बड़ी चुनौती यह मानसिकता है। अगर आयुर्वेद को जानने वाले व्यक्ति आयुर्वेद के प्रति प्रतिबद्धता नही होगी, उनका समर्पण नही होगा, आत्मविश्वास नही होगा, तो वे मरीज पर विश्वास कैसे भर पाएंगे। हम जब छोटे तो एक चुटकला सुना करते थे कि कोई यात्री किसी शहर में गया और किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने गया और फिर उसने पूछा मालिक कहां है। तो उसने कहा मालिक सामने वाली होटल में खाना खाने गए हैं। तो उस रेस्टोरेंट में कौन खाएगा? जिसको अपने पर भरोसा नहीं है, अपने पर भरोसा नहीं है, अपनी परंपरा पर भरोसा नहीं है, वो औरों पर भरोसा नहीं जगा सकते। संकट आयुर्वेद का नहीं है, संकट आयुर्वेद वालों का है, ये बात मैं नही जानता हूं आपको अच्छी लगी कड़वी लगी लेकिन कड़वी लगी, तो मैं समझता हूं कि मेरी पूरी तरह आयुर्वेद के सिद्धांतों के आधार पर बोल रहा हूं कि आयुर्वेद के सिद्धांतों में कड़वा जो होता है, अंत में मीठा बना देता है। बहुत से लोगों से मैं मिलता हूं, बहुत से लोगों से बातें करता हूं मैं पिछली बार जब एक बार जब मैं गुजरात में मुख्यमंत्री था, तो मैंने पूरे देश में ऐसे आयुर्वेद के विशेषज्ञों को बुलाया था। अब जबकि उस समय तो वो मेरा क्षेत्र नहीं था। एक राज्य का काम करता था लेकिन आयुर्वेद के प्रति एक जागरूकता की आवश्यकता थी। आयुर्वेद एक ऐसा क्षेत्र नहीं है कि वो एक सर्टीफाइड डॉक्टर तक सीमित हो। हमारे पूर्वजों ने स्वास्थ्य को जीवन का एक हिस्सा बना दिया था। आज हमने जीवनचर्या और स्वास्थ्य के लिए कहीं आउटसोर्स किया हुआ है। पहले स्वास्थ्य को आउटसोर्स नहीं किया गया था। उसकी जीवनचर्या का हिस्सा था और उसके कारण हर व्यक्ति हर परिवार अपने शरीर के संबंध में जागरूकता था। समस्या आए तो उपाय क्या उस पर भी जागरूक था। और उसका अनुभव आज भी आपको होता होगा। कभी आप रेल में या बस यात्रा करते हो और मान लीजिए कोई बच्चा बहुत रो रहा है, तो आपने देखा होगा कि कंपार्टमेंट में से 12-15 लोग वहां आ जाएंगे और तुरंत ऐसा करो इसको यह खिला दो, दूसरा कहेगा कि यह खिला दो, तीसरा कोई पुडि़या निकालकर जेब में दे देगा उसके मुंह में यह डाल दो। हम पूछते तक नहीं है आप डॉक्टर है, कौन है लेकिन जब वो कहता है तो हमें भरोसा होता है कि हां यार बच्चा चिल्ला रो रहा है, तो हो सकता है उसको यह तकलीफ होगी और यह दे देंगे तो बच्चा रोना बंद कर देगा और उसको शायद राहत हो जाएगी। यह अकसर हमने रेलवे में, बस में यात्रा करते हुए देखा होगा कि कोई न कोई मरीज को बीमारी हुई तो कोई न कोई पैसेंजर आकर के उसका उपचार कर देता है, जबकि वो डॉक्टर नहीं है। न ही वो वैधराज है, न कही जामनगर की आयुर्वेद युनिवर्सिटी में जाकर के आया है, पर चूंकि हमारे यहां यह सहज स्वभाव बना हुआ था, परंपरा से स्वभाव बना हुआ था और इसलिए हमें इन चीजों का कुछ न कुछ मात्रा में समझ थी। धीरे-धीरे हमने पूरा हेल्थ सेक्टर आउटसोर्स कर दिया। कुछ भी हुआ तो कही से सलाह लेनी पड़ रही है और वो फिर जो कहे उस रास्ते पर चलना पड़ता है ठीक हो गए तो ठक है नहीं हुए तो दूसरे के पास चले जाते है। कंसल्टेंसी बदल देते है। इस समस्या का समाधान, इसकी पहली आवश्यकता यह है कि मैं अगर आयुर्वेद क्षेत्र का विद्यार्थी हूं, आयुर्वेद क्षेत्र का डॉक्टर हूं, मैं आयुर्वेद क्षेत्र का टीचर हूं या मैं आयुर्वेद क्षेत्र में मेडिसन का मैन्यूफैक्चरिंग करता हूं या मैं होलिस्टिक हेल्थकेयर को प्रमोट करने वाला हूं, मैं किसी क्षेत्र से हूं, उसमें मेरा कोई समझौता नहीं होना चाहिए। मेरी शत-प्रतिशत प्रतिबद्धता होनी चाहिए और अगर हम शत-प्रतिशत प्रतिबद्धता लेकर चलते हैं, आप देखिए परिणाम आना शुरू हो जाएगा। कुछ न कुछ कारण नकारात्मक कारण ऐसे पैदा हुए हैं कि जिसके कारण परेशान लोग, थके-हारे लोग, जिस रास्ते पर चल पड़े थे। वहां से वापस लौटकर के बैक टू बेसिक तरफ जा रहे हैं होलिस्टिक हैल्थकेयर के नाम पर। उनको लग रहा है कि भई आज का जो मेडिकल साइंस है शायद तुरंत हमें राहत तो दे देता होगा, लेकिन स्वास्थ्य की गारंटी नहीं देता है। अगर स्वास्थ्य की गारंटी है तो मुझे वापस होलिस्टिक हेल्थकेयर में जाना पड़ेगा और…तो चाहे प्राकृतिक चिकित्सा हो, आयुर्वेद हो, या आहार-विहार के धर्म का पालन करना हो, या मुझे होम्योपैथी की ओर जाना हो कुछ–न–कुछ उस दिशा में चल पड़ता है और इसलिए और आयुर्वेद हमारे यहां तो पंचमवेद के रूप में जाना गया है। उसका यह महात्मय रखा गया है और मूल से लेकर के फल तक प्रकृति सम्पदा का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है कि जो आयुर्वेद में काम न आता हो। मूल से लेकर के फल तक यानी हमारे पूर्वजों ने हर छोटी बात में कितना बारीकी से उसके गुणों का, उसके स्वाभाव का, उसका व्यवहार में उपयोग का अध्ययन किया होगा। तब जाकर के स्थिति बनी होगी। हम उस महान सम्पदा को आधुनिक स्वरूप में कैसे रखे। यह दूसरी चैलेंज मैं देखता हूं। हम यह चाहे जब दुनिया संस्कृत पढ़ ले और श्लोक के आधार पर आयोजन को स्वीकार कर ले, तो यह संभव नहीं लगता है, लेकिन कम से कम उस महान विरासत को दुनिया आज जो भाषा में समझती है उस भाषा में तो कंवर्ट किया जा सकता है। इसलिए जो इस क्षेत्र में जो काम करने वाले लोग हैं उन्होंने रिसर्च करके, समय देकर के उस प्रकार की इंस्टीट्यूट फ्रेमवर्क के द्वारा इन-इन विषयों में जो भी शोध हुए हैं उसको हम कैसे रखेंगे। एक तीसरी बात है जितने भी दुनिया में साइंस मैगजीन हैं, जहां रिसर्च आर्टिकल छपते हैं क्या हम सब मिलकर के एक मूवमेंट नहीं चला सकते, एक कोशिश नहीं कर सकते, एक दबाव पैदा नहीं कर सकते, एक आयुर्वेद सत्र में काम करने वाले लोगों को शोध निबंध के लिए लगातार दबाव डाला जाए व्यवस्था का हिस्सा हो, उसको दो साल में एक बार अगर प्रोफेसर है, छात्र है या अंतिम वर्ष में है किसी न किसी एक विषय पर गहराई से अध्ययन करके आधुनिक शब्दावलि में शोध निबंध लिखना ही पड़ेगा। इंटरनेशनल मैगजीन में वो शोध निंबध छपना ही चाहिए या तो हमें यह कहना चाहिए कि इंटरनेशनल मेडिसिन के जितने मैगजीन हैं उसमें 10 प्रतिशत तो कम से कम जगह डेडीकेट कीजिए आयुर्वेद के लिए। उनकी बराबरी में हमारे शोध निबंध अलग प्रकार के होंगे। लेकिन हमारे शोध निबंध उसके लिए जगह होगी तो दुनिया का ध्यान जाएगा, जो मेडिकल साइंस में काम करते हैं कि चलिए भी 20 प्रतिशथ काम हमने उनके लिए हमनें हमेशा-हमेशा के लिए समर्पित किया हैं तो 20 पर्सेंट स्पेस के अंदर आयुर्वेद से संबंधित शोध निबंध आएंगे तो दुनिया माडर्न मेडिकल साइंस के शोध निबंध पढ़ती होगी, तो कभी-कभी नजर उसकी उस पर भी जाएगी और हो सकता है इन दोनों के तरफ देखने का दृष्टिकोण उन साइंटिस्ट फैक्लटी का होगा, मैं समझता हूं कि आयुर्वेद को नई दिशा देने के लिए वो एक नई ताकत के रूप में उभर सकता है। लेकिन इसके लिए किसी ने फॉलोअप करना चाहिए कि वैश्विक स्तर पर इस प्रकार के मेडिकल साइंस की मैगजीन कितने हैं। उसमें अब तक कही आयुर्वेद को स्थान मिला है या नहीं मिला है। और आयुर्वेद को स्थान देना है तो उन लोगों से बात करनी होगी किसी को पत्र व्यवहार करना होगा। यानी एक हमने मूवमेंट चलानी होगी कि वैश्विक स्वीकृति जहां है वहां हम अपनी जगह कैसे बनाए और मनुष्य का स्वभाव है और हमारे देश का तो यह स्वभाव है ही है, 1200 साल की गुलामी के कारण हमारी रगों में वो घुस गया है। जब तक हमारी यहां कोई बात वाया अमेरिका नहीं आती है हमें गले ही नहीं उतरती। और इसलिए अगर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में कोई बात छप गई तो आप समझ लेना साहब सारे हमारे आयुर्वेद के डॉक्टर उसका फोटो फ्रेम बनाकर के अपने यहां लगा देंगे। आप सबको जानकर मुझे मालूम नहीं है ये आयुर्वेद वालों ने इस प्रकार का अध्ययन किया है या नहीं किया है। जब पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे, तब उस जमाने में तो इन सारी चीजों पर समाज जीवन का रूप भी अलग प्रकार का था। तो सरकार ने उस समय सोचा कि भई आयुर्वेद के प्रमोशन के लिए क्या किया जाए। यह हमारी इतनी बड़ी विधा नष्ट क्यों हो रही है। तो एक हाथी कमिशन बना था। जय सुखलाल हाथी करके उस समय एक केंद्र सरकार में मंत्री थे और हाथी कमिशन को काम दिया गया था कि आयुर्वेद को पुनर्जीवित करने के लिए क्या किया जाए। आयुर्वेद को प्रचारित करने के लिए क्या किया जाए। शायद वो 1960 के आसपास का वो रिपोर्ट है कभी देखने जैसा है। और उसमें रिपोर्ट में कहा गया है पहले पेज पर जो सुझाव आया है बड़ा रोचक है। उसमें कहा गया कि अगर भई आयुर्वेद को आपको प्रचारित करना है तो उसके पैकेजिंग को बदलना पड़ेगा, क्योंकि वो पुडि़या, वो सारे जड़ी-बूटियां, थैला भरकर के ले जाना, फिर उबालना, फिर दो लीटर पानी से उबालो, फिर वो आधा होना चाहिए, फिर रातभर रखो, फिर उबालो, फिर आधा हो। तो यह सामान्य मानवों के गले नहीं उतरता था। उन्होंने लिखा है कि इसको ऐसे पैकेजिंग व्यवस्था में रखना चाहिए, ताकि सामान्य मानव को सहज रूप से उपलब्ध हो। धीरे-धीरे-धीरे हमारे यहां बदलाव आया है। आज आयुर्वेद की दवाई खाने वालों को वो अब परेशानियां नहीं कि घर ले जाए। जड़ी-बूटियां और उबाले और फिर कुछ निकाले। अब तो उसको रेडीमेट चीजें मिल रही हैं। मेडिसिंस मिल रहे हैं, गोली के रूप में मिल रहा है। यानी जिस प्रकार के रूप में एलोपेथिक दवाएं मिल रही हैं, वैसे ही रूप में यह मिलने लगा है। यह जैसे एक बदलाव की आवश्यकता है। इसलिए आयुर्वेद क्षेत्र में रिसर्च करने वाले लोग, आयुर्वेद में अध्ययन करने वाले लोग और आयुर्वेदिक मेडिसिन को बनाने वाले लोग उनके साल में एक-दो बार संयुक्त प्रयास होने चाहिए। इसलिए नहीं कि आयुर्वेद का डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन लिखे उसकी कंपनी का। मैं क्या कह रहा हूं समझें। यह बात, आपके गले नहीं उतरी। इसलिए कि और अच्छा आवश्यक परिवर्तन करते हुए उत्पादन कैसे हो। दवाईयों का निर्माण कैसे हो, उस पर सोचा जाए। उसी प्रकार से आज हम जितनी मात्रा में शास्त्रों में पढ़ते थे क्या उतने हर्बल पौधे उपलब्ध है क्या। यह बहुत बड़े शोध का विषय है। कई ऐसी दवाइयां होगी जिसका शास्त्र में मूल लिखा होगा कि फलाने वृक्ष या पौधे में से या मूल में से यह दवाई बनती है। आज उस वृक्ष को ढूंढने जाओंगे। उसका वर्णन देखकर के खोजोगे तो प्राप्त क्या होना, कभी-कभी मुश्किल लगता है। मुझे इस बात का अनुभव इसलिए है कि मैं जब गुजरात में मुख्यमंत्री था, तो मैंने एक तीर्थंकर वन बनाया था और जो 24 तीर्थंकर हुए जैन परंपरा में उनको किसी न किसी वृक्ष के नीचे आत्मज्ञान हुआ था। तो मैंने सोचा कि तीर्थंकर वन बनाऊंगा, तो इन 24 वृक्षों को लाकर के वहां लगाऊंगा। मैंने खोजना शुरू किया और मैं हैरान हो गया, मैं इंडोनेशिया तक गया खोजने के लिए, लेकिन 24 के 24 वृक्ष मुझे नहीं मिले। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे सामने एक बहुत बड़ी चुनौती यह है कि आयुर्वेद के मूलाधार जहां है, वो है हर्बल प्लांटेशन. उसमें हम किस प्रकार से आगे बढ़े और उसमें से हम एक मूवमेंट चलाए किस प्रकार से काम करें। आप लोगों को कभी भाव नगर जाने का अवसर मिले पालिताना जैन तीर्थ क्षेत्र पर तो वहां जब मैं गुजरात में था, तो हमने पावक वन बनाया था। पालिताना की ऊंचाईयों पर जाने से पहले ही नीचे बना हुआ है। और वो गार्डन ऐसा बनाया है कि पूरे गार्डन का लैंडस्केप मनुष्य का शरीर बनाया है। बड़ा विशाल करीब दो सौ मीटर लम्बा और उसके शरीर के जो अंग है। उस अंग के साथ जिस औषधि का संबंध आता है, वो पौधा वहां लगाया है। अगर हार्ट है तो हार्ट से जुड़े हुए सारे पौधे उस जगह पर लगाए हैं। अगर घुटने है घुटनों के दर्द से संबंधित बाते हैं तो उस घुटना जहां हैं वहां पर वो पौधे लगाए हैं। कोई भी व्यक्ति उस गार्डन में जाकर के आएगा तो उसको सहज रूप से पता चलता है कि हां भई यह औषधि है। इससे बाद में बनने वाली औषधि मेरे शरीर के इस हिस्से को काम आती है। यानी हमने इस पुरातन ज्ञान को आधुनिक स्वरूप में किस प्रकार से लगाया जाए और यह एक सजह स्वभाव बन सकता है। बाद में विद्यार्थियों के वहां टूर भी होती है। वे भी देखते है कि भई ये फलानी बीमारी के लिए अगर यहां पर दर्द होता है तो यह औषधि के पेड़ यहां लगाओ। उसका संबंध है। हम यदि चीजों को देखे तो हमें जानकारी होगी। हमारे शास्त्रों में भी ये देश ऐसा है कि जिसमें करोड़ों भगवानों की कल्पना की गई है। और हमारे यहां तो जैसा भक्त वैसा भगवान है। अगर भक्त पहलवान है, तो भगवान हनुमान है। और भक्त अगर पैसों का पुजारी है, तो भगवान लक्ष्मी जी है। अगर भक्त ज्ञान में रूचि रखता है तो भगवान सरस्वती है। यानी हमारे यहां जितने भक्त, उतने भगवान इस प्रकार का माहौल है। और इसलिए एक विशेषता ध्यान में रखिए। हमारे यहां जितने भगवानों की कल्पना की गई है, हर भगवान के साथ कोई न कोई वृक्ष जुड़ा हुआ है। एक भी भगवान ऐसा नहीं होगा, कि देखिए पर्यावरण के प्रति जागरूक समाज कैसा था। पर्यावरण के प्रति जागरूक समाज की कल्पनाएं कैसी थी। कोई भी ईश्वर का ऐसा रूप नहीं है, जिसके साथ कोई न कोई पौधा न जुड़ा होगा और कोई न कोई पशुपक्षी जुड़ा न हुआ हो। ऐसा एक भी ईश्वर नहीं है हमारे यहां। यह सहज ज्ञान प्रसारित कर देने के मार्ग थे। उन्हीं मार्गों के आधार पर यह आयुर्वेद जन सामान्य का हिस्सा बना हुआ था। हमारी आस्थाएं अगर उस प्रकार की होती है तो हम चीजों को बदल सकते हैं। इसलिए आयुर्वेद को एक बात तो लोग मानते ही है कितने ही पढ़े लिखे क्यों न हो लेकिन अगर शरीर की अंत:शुद्धि करनी है तो आयुर्वेद उत्तम से उत्तम मार्ग है। करीब-करीब सब लोग मानते है। यह स्वीकार करके चलते है कि भई अंदर से सफाई करनी है तो उसी का सहारा ले लो काम हो जाएगा। जल्दी जल्दी हो जाएगा। लेकिन आयुर्वेद के संबंध में मजाक भी बहुत होता रहता है। एक बार एक वैद्यराज के परिवार में मेहमान आने वाले थे तो उस परिवार की महिला ने अपने पतिदेव को कहा कि आज जरा बजार से सब्जी-वब्जी ले आइये मेहमान आने वाले हैं। पतिदेव वैद्यराज थे तो सब्जी खरीदने गए। जब वापस आए तो नीम के पत्ते ले आए। पत्नी ने पूछा क्यों तो बोले मैं गया था बाजार में आलू देखे तो लगा इससे तो यह बीमारी होती है, बैंगन देखे तो लगा ये बीमारी होती है, ये सब्जी देखा तो लगा, तो सब्जी नहीं दिखती थी, सब्जी में बीमारी दिखती थी और आखिरकार उसको लगा, मैं नीम के पत्ते ले आया हूं। तो कभी-कभी ज्ञान का व्यवहारिक रास्ता भी खोजना पड़ता है। अगर ज्ञान का व्यवहारिक रास्ता नही होता है तो ज्ञान कभी-कभी कालवाह्य भी हो जाता है और इसलिए सहज स्वीकृत अवस्था को कैसे विकसित किया जाए इस पर हम जितना ध्यान देंगे। मैं मानता हूं कि आज जो दुनिया, एक बहुत बड़ा चक्र बदला है अगर गत 50 वर्ष एलोपैथिक मेडिसिन ने जगत पर कब्जा किया है तो उससे तंग आई हुई दुनिया आज होलिस्टिक हेल्थकेयर की तरफ मुड़ चुकी है। अन्न कोष और प्राणमय कोष की चर्चा आज विश्व के सभी स्थानों पर होने लगी है और मेडिकल साइंस अपने आप को एक नए रूप में देखने लगा है। हमारे पास यह विरासत है। लेकिन इस विरासत को आधुनिक संदर्भों में फिर से एक बार देखने की आवश्यकता है। उसमें से बदलाव की जरूरत हो तो बदलाव की आवश्यकता है। और यह हम कर पाते हैं तो हमारे सामने जो चुनौतियां हैं उन चुनौतियों को हम भली-भांति, एक अच्छा, यानी लोगों में विश्वास पैदा हो, उस प्रकार से रिस्पांस कर सकते हैं। आयुर्वेद के साथ-साथ जीवनचर्या को भी जोड़ा गया है। अनेक प्रकार से आयुर्वेद जीवन शैली से ज्यादा जुड़ा हुआ है। शायद हमने कभी सोचा तक नहीं होगा। आज यहां बैठै हुए लोग भी कुछ बातों पर तालियां भी बजा रहे हैं। पीछे छात्र बहुत बड़ी मात्रा में है। लेकिन फिर अंदर तो दिमाग थोड़ा हिलता होगा। पता नहीं करियर कैसी बनेगी। ये पुडि़या से जिंदगी चलेगी क्या। यह उनके दिमाग में चलता होगा जी। यहां से मंथन के बाद भी जाएंगे तो भी वो दुविधा नहीं जाएगी। यार ठीक अब डॉक्टर तो नहीं बन पाए, वैद्यराज बन रहे हैं। लेकिन अब कुछ तो गाड़ी चलाने के लिए करना पड़ेगा। लेकिन उसके बावजूद भी, मैं खासकर के इन नई पीढ़ी के लोगों को कह रहा हूं, निराश होने का कोई कारण नहीं है। हमारे सामने एक उदाहरण है, उस उदाहरण से हम सीख सकते हैं। हमारे देश में भी जिस भारत की धरती पर योग की कल्पना थी, जिस भारत ने अपने योग विश्व को दिया, हम लोगों ने मान लिया था योग हमारा काम नहीं है यह तो हिमालय में रहने वाले ऋषि मुनियों का गुफाओं में बैठकर के साधना करने वाला प्रकल्प है। यही हमने सोच लिया था और एक प्रकार से सामान्य जन उससे अलग रहता था। क्या कभी किसी ने कल्पना की थी कि आज से 30 साल पहले योग की जो अवस्था थी। आज योग विश्वभर में चर्चा के केंद्र में कैसे पहुंचा। क्या कारण है कि आज दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपनी कंपनी में जिस प्रकार से सीईओ रखते हैं, उसी प्रकार से एक स्ट्रेस मैनेजमेंट की इंस्टीट्यूट भी रखते हैं। क्यों? अवसाद के कारण, निराशा के कारण व्यक्ति के जीवन में जो संकटों की घडि़यां आती हैं तब जाकर के वो शाश्वत शांति का रास्ता खोजता है और उसके लिए विश्व का एक श्रद्धा का केंद्र बना कि योगा से शायद मुझे रिलीफ मिल जाएगा। मैंने बहुत रास्ते अपना लिये, मैं दवाओं तक चला गया लेकिन मुझे संतोष नहीं मिला। अब मैं वापस यहां चलूं, मुझे मिल जाएगा। जिस योगा से हम भी जुड़ने को तैयार नहीं थे, उस योगा से अगर आज दुनिया जुड़ गई है तो जिस आयुर्वेद से हमारे आज उदासीनता है कल उस आयुर्वेद से भी दुनिया जुड़ सकती है। हमारे सामने जीता-जागता उदाहरण है। यह आत्म विश्वास जब हमारे भीतर होगा तभी तो हम सामान्य मानव के भीतर आयुर्वेद के प्रति आस्था पैदा कर सकते हैं। इसलिए हमारी यह कोशिश रही, तो मुझे विश्वास है कि उसका फायदा होगा। आज भी दुनिया में, हर्बल मेडिसिन के क्षेत्र में कानूनों की रूकावट के कारण जब हमारी हर्बल मेडिसिन एक्सपोर्ट होती है तो लिखा जाता है कि एडिशनल फूड के रूप में उसको लिखा जाता है। अतिरिक्त आहार के रूप में उसको भेजा जाता है। मेडिसिन के रूप में आज भी उसको स्वीकृति नहीं मिली है। आप जानते हैं दवा उद्योग की ताकत कितनी है। वो आपको ऐसे आसानी से घुसने नहीं देंगे। वे किसी भी हालत में आपको दवाओं की वैश्विक स्वीकृति नहीं देंगे। बड़ी चुनौती है, लेकिन अगर सामान्य मानव को इसमें विश्वास हो गया तो कितनी ही बड़ी ताकतवर संगठन हो, आपको रोक नहीं सकता है। एक संकट और, मैं देख रहा हूं। आयुर्वेद अच्छा करे, करना भी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से हमने आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों जैसे कोई दुश्मन हो इस प्रकार का माहौल बना दिया। हमारी पूरी व्याख्या ऐसी है। यह व्याख्या बदलनी होगी। हम, हम भी तो विवाद करते रहते है भई आयुर्वेद जो है वो मूल से बीमारी को दूर करता है और एलोपैथी तो भई ऊपर ऊपर relief करता है और दुष्कारते हैं और फिर वो ही करते हैं। जब तक हम यह न कहे कि एलोपैथी एक रास्ता है लेकिन आयुर्वेद यह जीवन पद्धति है। यह जीवन शैली है। आयुर्वेद को लेकर हमारा पूरा फोकस बदलना होगा। हम एलोपैथी के साथ संघर्ष का चेहरा लेकर के चलेंगे तो उस लड़ाई से हमें फायदा नहीं है। हमें फायदा इस बात में है। और जिस प्रकार से योगा ने अपनी जगह बना ली आयुर्वेद भी अपनी जगह बना सकता है। अगर नई बीमारियां आएगी तो एलोपैथी वाले संभाल लेंगे। लेकिन बीमारियां न आए वो तो आयुर्वेद ही संभाल सकता है। और एक बार सामान्य मानव को भी विश्वास हो गया कि हां यह रास्ता है आप देखिए बड़े से बड़ा डॉक्टर क्यों न हो, सर्जन हो लेकिन उसके घर में पोता होता है और पोते को दांत आने वाले होते हैं और अगर लूज़ मोशन शुरू हो जाता है तो शहर का सबसे बड़ा सर्जन भी होम्योपैथी के डॉक्टर के यहां जाता है। उस बच्चे को गोलियां खिलाने के लिए ताकि उसके दांत आए और लूज़ मेशन न हो। यही होता है ना। वो अपना रास्ता छोड़कर के अपने बच्चे की भलाई के लिए रास्ता बदलता है। विश्वास बहुत बड़ी चीज है। मैं एक घटना से बड़ा परिचित हूं। मैं गुजरात में रहता था तो वहां एक डॉक्टर वणीकर करके, अब तो उनका स्वर्गवास हो गया। बहुत बड़े, शायद वो गुजरात के पहले पैथोलॉजी के एम.एस. थे और विदेशों में पढ़कर के आए थे। उनका पैथोलॉजी लेबोरेट्री चलता था। उनके परिवार में रिश्तेदारी में एक बच्चा बचपन में बीमार हो गया। बहुत छोटा बालक था। शायद दो तीन-महीने हुए होंगे और कुछ ठीक ही नहीं होता था। तो एक वैद्यराज के पास ले गए। सारा परिवार एलोपैथी मेडिकल साइंस के दुनिया के लोग थे। थक गए तो एक वैद्यराज के पास ले गए। वैद्यराज के पास ले गए तो उस वैद्यराज जी को मैं जानता था। तो बच्चे को देखा उन्होंने और उन्होंने अंदर से पत्नी को कहा कि ऐसा करोगे शिरा बनाकर ले आओ। हलवा बनाकर ले आओ। तो यह कहने लगे नहीं-नहीं हम लोग तो नाश्ता करके आए हैं हल्वा-वल्वा नहीं। मैं तुम्हारे लिए नहीं बना रहा हूं, मैं बच्चे के लिए बना रहा हूं। फिर मैंने बच्चा तो तीन महीने का है उसको हलवा खिलाओगे आप। लेकिन जो भी औषधी वगैरह डालनी होगी उनकी पत्नी को मालूम होगा, तो चम्मचभर हलवा बनाकर के ले आई और खुद वैद्यराज जी ने उस बच्चे को उंगली पर लगा लगाकर के, उसके मुंह में चिपकाते रहे। उसको थोड़ा-थोड़ा आधे घंटे तक कोशिश कर करके थोड़ा बहुत डाला। तीन दिन के अंदर उसके जीवन में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह डॉक्टर मुझे लगातार बताते रहते थे कि हम एलोपैथी की दुनिया के इतने बड़े लोग हमारे अपने पोते को ठीक नहीं कर पा रहे थे उन्होंने एक चम्मचभर हलवा खिलाकर के बिल्कुल उसे एकदम से सशक्त बना दिया। कहने का तात्पर्य है कि इस शास्त्र में कोई ताकत तो है। मुसीबत, हमारे भरोसे की है। एक बार हमारा भरोसा हो जाए, तो यह ताकत चौगुना हो जाएगी और जगत उसको जीवन शैली के रूप में स्वीकार करेगा और उसके कारण हम स्वस्थ्य की दृष्टि से एक स्वस्थ समाज के लिए। दूसरा सबसे बड़ी बात है, सबसे सस्ते में सस्ती दवाई है। महंगी दवाई नहीं है। मैं भी अब इन दिनों चुनाव में भाषण करता हूं, गला खराब होता है तो पचासों फोन आते हैं, आप ऐसा कीजिए हल्दी ले लीजिए। अब वो करने वाले को मालूम नहीं है कि हल्दी खाने से गले को क्या होता है क्या नहीं होता। लेकिन उसको मालूम गला खराब हुआ हल्दी ले लो और आप भाषण करते रहो। कहने का तात्पर्य है कि इतना सहज व्यवस्था हमारी विकसित हुई थी उसमें फिर एक बार प्राण भरने की आवश्यकता है। मैं समझता हूं कि आपके इस दो-तीन दिन के समारोह में बहुत सी ऐसी चीजें आपके ध्यान में आई होगी। उसके आधार पर आप कोई न कोई योजना बनाएंगे। भारत सरकार के रूप में इस प्रकार की महत्वकांक्षा आपकी योजनाओं के रूप में पूरा सहयोग रहेगा, उसको आगे बढ़ाने में पूरा समर्थन रहेगा। मेरी आप सबको स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं हैं, तो डॉक्टर का स्वास्थ्य पहले अच्छा रहना चाहिए ना और दूसरा आपसे मेरी आग्रह भरी विनती है कि आप आयुर्वेद को समर्पित भाव से ही स्वीकार कीजिए। सिर्फ एक प्रोफेशन के रूप में नहीं। एक समाज कल्याण के लिए बहुत बड़ा परिवर्तन लाने के लिए है। इस विश्वास से आगे बढि़ए मुझे आपके बीच आने का अवसर मिला। यह समापन सम्पन्न हो रहा है। मेरी आप सबको बहुत शुभकामनांए। धन्यवाद।
Login or Register to add your comment
मध्य वर्ग के लिए आर्थिक लाभ