दरणीय अडवाणीजी, माननीय श्री श्रेणिकभाई, दिपकभाई, आज के कार्यक्रम के केन्द्र बिन्दु भाई श्री उत्कर्षभाई, मंच पर बिराजमान सारे श्रेष्ठी जन, बुजुर्गों, माताओं, भाईयों और बहनों..!

माज-जीवन में प्रवाह कितनी तेज़ी से बदल रहे हैं इसका प्रतीक यानि इस प्रकार की प्रवृति। हम सब पाँच हजार साल से भी लम्बे समय से एक समाजिक शक्ति के रूप जिए, जिसका मूल कारण था हमारी परिवार व्यवस्था। सारे विश्व की जितनी भी समाज व्यवस्थाएँ हैं, उन सारी समाज व्यवस्थाओं में से यदि किसी भी व्यवस्था में कोई आंतरिक ऊर्जा है, जो स्वयं ही जीवन शक्ति है, जिसमें खुद ही ऊर्जा संचित करने की क्षमता है तो वह केवल भारत की बृहद् परिवार व्यवस्था है। लेकिन कालक्रम के साथ-साथ युग बदलते गए, गुलामी काल के १२०० साल में समाज-जीवन पर कई झटके लगे, समयानुकूल परिवर्तन के लिए हमें मौका नहीं मिल सका। सामाजिक नेतृत्व करने वालों की शक्ति बहुधा गुलामी से आजादी पाने के आंदोलनों में खर्च हो गई और इसी कारण १२०० सालों का समय ऐसा गुजरा जिसमें जो समयानुकूल परिवर्तन होने चाहिये थे वे नहीं हो सके। और परिणाम स्वरूप जिस तरह किसी पुरानी इमारत को समय समय पर नहीं संभाला जाए तो वह धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है, उसी तरह से हमारी समाज व्यवस्था, परिवार व्यवस्था भी कमजोर होने लगी और फिर उससे बचने के लिए समाज ने जो नये-नये तरीके अपनाए उनमें से एक; धीरे-धीरे हम सब माइक्रो फॅमिली की ओर मुडे। और जब ऐसी परिस्थिति खड़ी होती है तब स्वाभाविक रूप से ही नई व्यवस्थाएँ विकसित करनी पड़ती हैं, नई व्यवस्थाओं को अनुमोदन देना पड़ता है और तभी हम समाज के किसी एक बड़े वर्ग को सँभाल सकते हैं। यह बात सही है कि हमारी स्थिति दुनिया के उन देशों जैसी नहीं है कि जहाँ सीनियर सिटिज़न होते ही समाज और देश पर बोज बन जाने की परिस्थिति होती है, हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। इतना बड़ा गुजरात, छ: करोड नागरिक और आज मुश्किल से १७० वृद्धाश्रम चलते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वृद्ध लोग नहीं हैं, लेकिन आज भी समाज व्यवस्था में एक ताकत है जो अभी भी परिवार और समाज खुद ही बनाए रखता है और इसी लिए ये जो हमारी मूलभूत शक्ति है, इस शक्ति को पोसने की बड़ी जागरूकता से व्यवस्था करते रहने की आवश्यकता सर्वदा रहने वाली है। समाज-जीवन में एक बहुत बड़ा जो संकट पैदा हुआ है, वह संकट है जनरेशन गॅप का। और इस जनरेशन गॅप के संकट का सबसे ज़्यादा शिकार बनते हैं या तो वृद्ध या फिर बच्चे। क्योंकि तीन पीढ़ियों का समकालीन जीवन होता है और इसमें संतुलन बनाये रखने की वर्तमान पीढ़ी की क्षमता यदि कम हो जाती है तो असंतुलन पैदा होता है जिसका नुकसान सबसे ज़्यादा बुज़ुर्गों को और दूसरे क्रम में बच्चों को होता है। और ऐसे समय पर समाज-जीवन में एक संकलित व्यवस्था विकसित करने के प्रयास आवश्यक होते हैं।

जिस तरह से हम सीनियर सिटिज़न के लिए चिंतित हैं, उसी तरह बच्चों की चिंता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। जब परिवार संयुक्त थे, तब एक परिवार खुद ही एक यूनिवर्सिटी के समान था। बच्चे के विकास में बुजुर्गों का महत्वपूर्ण योगदान रहता था। दादी से एक बात सीखता था, दादाजी से दूसरी सीखता था... माँ से एक बात, चाचा से दूसरी, मामा से तीसरी... और एक तरह से, संयुक्त परिवार की वजह से बच्चे का विकास एक यूनिवर्सिटी के रूप में होता था। समय के साथ माइक्रो फॅमिली आने से आज के बच्चे को यह सौभाग्य नहीं मिलता है और छोटी उम्र में ही उसे कहीं और टटोलना पडता है। उन्हें कुछ अलग वातावरण में जीना पडता है। इस तरह की स्थिति पैदा हुई है। बच्चा एक आया के भरोसे रहता है। और इस वजह से, बच्चा जैसा देखता है उसी के आधार पर जीवन को गढ़ने की कोशिश करता है। आज अगर हम सौ बच्चों को खिलौने की दुकान में ले जाएँ और उन्हें अपनी पसंद का खिलौना चुनने को कहें तो आश्चर्यजनक रूप से १०० में से ६० से ६५ बच्चे खिलौने में पिस्तौल को चुनते हैं। यह एक बड़ी चौंकानेवाली बात है। यदि वह बच्चा वात्सल्य, स्नेह से वंचित रहे, उसे उचित वातावरण न मिले तो वह बच्चा कहाँ जाएगा..? और परिवार में बुज़ुर्ग पीढ़ी बच्चों के जीवन की संरचना में एक बहुत ही सार्थक भूमिका निभाती है। जब इतनी बड़ी समस्या खड़ी हुई है तब गुजरात ने एक छोटा सा प्रयास किया है। गुजरात दुनिया का पहला राज्य है जिसने ‘चिल्ड्रन यूनिवर्सिटी’ की कल्पना की है। बदलते युग के साथ, माइक्रो फॅमिली की स्थिति में हम अपने हाथ खड़े करके यह नहीं कह सकते कि हो जाएगा भाई, देख लेंगे वे लोग... नहीं! दीर्घद्रष्टि के साथ हमें नई व्यवस्थाएँ विकसित करनी पडेंगी। और इसी के एक समाधान के रूप में इस चिल्ड्रन यूनिवर्सिटी द्वारा ऐसे संशोधन करने के प्रयास होंगे कि बच्चों के सर्वांगी विकास के लिए, माइक्रो फॅमिली होने के बावजूद भी, ऐसी कौन सी व्यवस्था विकसित की जा सकती है ताकि समाज-जीवन को उजागर कर सके ऐसी पीढ़ी तैयार हो । गुजरात ने इस दिशा में काम प्रारंभ किया है।

गुजरात सरकार के समाज कल्याण विभाग द्वारा विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ चलती रहती हैं। वृद्धाश्रम भी चलते ही हैं, वृद्धाश्रमों को सरकार के द्वारा बहुत सारी वित्तीय सहायता की जाती है। लेकिन अब हम एक नया एप्रोच ले रहे हैं, क्लस्टर एप्रोच। आज परित्यक्त महिलाओं के लिए एक जगह पर व्यवस्था है, अनाथ बच्चों के लिए दूसरी जगह पर है, वृद्ध लोगों के लिए कहीं तीसरी जगह पर व्यवस्था है... ऐसी सरकारी व्यवस्थाएँ जो बिखरी हुई हैं और खर्च भी अधिक होता है, लेकिन चल रही हैं। हम इन परित्यक्त महिलाओं, अनाथ बच्चों और वृद्धों को एक ही कॅम्पस में लाने की सोच रहे हैं। यदि एक फॅमिली लाइफ एन्वायरमेन्ट क्रिएट होगा तो संभव है कि इन टुकड़ों में चल रही व्यवस्थाएँ समाज-जीवन की ताकत बन सकती हैं, इस दिशा में प्रयास शुरू किया है। आने वाले दिनों में ‘बाल गोकुलम’ प्रकार के केन्द्रों को विकसित करने की कोशिश करने वाले हैं। मुझे उम्मीद है कि इस दिशा में प्रयास करने के परिणामस्वरूप समाज-जीवन को एक नई शक्ति मिलेगी।

ह बात सच है कि यदि गुजरात की कोई सबसे बड़ी पहचान है तो वह है उसकी सेवावृत्ति और प्रवृत्तियाँ । हमारे यहाँ चेरिटी वर्क बड़े पैमाने पर होता है। महाजनों द्वारा जो प्रवृत्तियाँ सालों से चल रही थीं; आप किसी भी गाँव में जाओ... गौशाला, तो महाजन ने बनाई हो, पाठशाला, तो महाजन ने बनाई हो, पानी की प्याऊ, तो महाजन ने बनाई हो, लाइब्रेरी, तो महाजन ने बनाई हो... सदियों से हमारी यह ताकत रही है। ये काम किसी सरकार ने नहीं किए हैं। सदियों से इस महाजन परंपरा के कारण... और महाजन परंपरा का मतलब ही यह है कि समाज में चेरिटी एक ऐक्टिविटी का नाम बन गया है और उसके कारण समाज-जीवन में वह एक बड़ी शक्ति रही है। मुझे याद है, भूकंप के बाद जब मैं कच्छ में काम कर रहा था, उस समय विदेशी लोग बड़ी संख्या में वहाँ काम करने आए थे। शाम को वे लोग अपने जो छोटे टेंट अपने साथ लाये थे, उसमें चले जाते थे। तो मुझे भी उत्सुकता होती थी कि चलो जरा उन लोगों से मिलूं, जानूँ कि उनके अनुभव क्या हैं, क्या कहते हैं..! तो वे विदेशी लोग एक बात का आश्चर्य व्यक्त करते थे। उनमें से कई ग्रुप सीधे तुर्की से आए थे, जहाँ आखरी भूकंप हुआ था। उन्होंने कहा कि साहब, हम जहाँ भी भूकंप के लिए गए हैं, वहाँ केवल तीन या चार एन.जी.ओ. होते हैं, या तो डबल्यु.एच.ओ. हो, या फिर रेडक्रॉस वाले हों... सिर्फ यही एन.जी.ओ. काम करते हों। यहाँ हमारे लिए आश्चर्य यह है कि हर गली-मोहल्ले में कोई न कोई एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं। कोई रसोई घर चलाता है, कोई पट्टी बाँधने का काम करता है, कोई फिजियोथेरेपी का काम करता है..! उन लोगों के लिए आश्चर्य का विषय था। यह हमारे समाज-जीवन की शक्ति है और इस शक्ति का प्रतिबिंब ऐसी एक सुचारु संगठित व्यवस्था में यहाँ 'शांति निकेतन' में नजर आ रहा है।

 

मुझे विश्वास है कि यह शांति निकेतन नई ऊर्जा भरने का एक केंद्र बनेगा। मुझे यकीन है कि गुजरातभर में या देशभर में, जहाँ भी वृद्धाश्रम के लिए इस तरह की प्रवृत्ति चलती हों, उनके लिए एक मॉडल बनेगा। इन सीनियर सिटिज़नों के अनुभव और उनकी शक्ति समाज की आनेवाली पीढ़ी के लिए क्रिएटीव वर्क में कैसे काम आए, वे इसमें भागीदार कैसे बने, यह एक प्रकार से सीनियर सिटिज़नों के अनुभवों को प्रवृत्तिमय बनाने का केंद्र कैसे बने... और हम जितना इस दिशा में ज्यादा सोचेंगे, हम यह एक नया नज़राना देश की जनता के सामने रख सकेंगे। उत्कर्षभाई और उनके परिवार को, दीपकभाई और उनके परिवार को अनेक अनेक अभिनंदन देता हूँ।

 

हुत बहुत शुभकामनाएँ..!

 

न्यवाद..!!

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