भारत की आध्यात्मिक जागृति के पीछे इसकी सभ्यता की दीर्घकालिक लोकनीति है: प्रधानमंत्री
भारत जैसे विशाल देश के लिए ‘अध्यात्म’ देश की ताकत है: प्रधानमंत्री मोदी
राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर भारतीय समाज में सुधार के प्रमुख उदाहरण: प्रधानमंत्री

पश्चिम बंगाल के राज्‍यपाल श्रीमान केसरी नाथ जी त्रिपाठी, त्रिपुरा के राज्यपाल, श्रीमान तथागत राय, केन्द्र में मंत्री परिषद में मेरे साथी श्रीमान बाबुल सुप्रियो जी, पश्चिम बंगाल के मंत्री श्रीमान हकीम जी, गौड़िया मिशन अध्‍यक्ष श्रीमंत भक्ति शौर्य परिराज गोस्वामी महाराज जी, मायापुर से चैतन्य मठ के आचार्य, श्रीमंत भक्ति प्रज्ञानज्योति महाराज जी, भजन कुटीर वृंदावन के आचार्य श्रीमान भक्ति गोपनन्द बोन महाराज जी, देवानन्द गौड़िया मठ के आचार्य श्रीमंत भक्ति वेदांत प्रजाटक महाराज जी, गौड़िया मिशन के सचिव भक्ति सुंदर सन्यासी महाराज जी, गौड़िया संघ के आचार्य श्रीमत भक्ति प्रसून साधू महाराज, नई दिल्ली के पहाड़गंज से गौड़िया मठ के भक्ति विष्णु विचार विष्णु महाराज जी, श्यामवेदी गौड़िया मठ विजयवाड़ा के प्रभारी भक्ति, विदभगता भागवत महाराज जी और विशाल संख्या में पधारे हुए गौड़िया मठ के सभी अनुयायी भक्तजन।

कुछ समय पहले महाराज जी मेरे पास आए थे। उनका आग्रह था कि शताब्‍दी वर्ष का समारोह है, आप उसमें आइए। मेरा ये बड़ा सौभाग्य है कि मुझे इस महान परम्परा के सभी प्रतिनिधियों का एक साथ दर्शन करने का मुझे सौभाग्य मिला है। भारत दुनिया के लोगों को एक अचरज रहा है क्या कारण है इतने घाव और इतने आघातों के बाद भी यह देश आज भी खड़ा है। इस जहां से पता नहीं कौन-कौन मिट गए सारी हम कविताएं पढ़ते रहते हैं। क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। काल के प्रहारों के बीच वो ही टिक पाता है, जिसके भीतर एक अंतर्भुत आत्मिक शक्ति होती है। इस विशाल भारत की अंतर्भुत आत्मिक शक्ति तो उसका अध्यात्म है। शायद दुनिया में ऐसी आध्यात्मिक परम्परा कहीं नजर नहीं आएगी, जहां पर इस महान विचार को मानने वाले, स्वीकार करने वाले, इतनी विविधताओं से भरे हुए हों। ये समाज इतना विशाल है, व्यापक है, गहन है, गहरा है कि जहां मूर्ति पूजा को मानने वाला भी उसका गौरव गान करता है और मूर्ति पूजा का घोर विरोध करने वाला भी उसकी प्रशंसा करता है।

जो साकार को स्वीकार करता है वो भी इस राह पर चलता है, जो निराकार को समर्पित है वो भी उसी प्रकार से चल रहा है। जो परमात्मा की पूजा करता है वो भी इसे शिरोधार्य मानता है। जो प्रकृति की पूजा करता है वो भी इसे शिरोधार्य मानता है। और ऐसी कौन सी ताकत है? वो ताकत पूजा पाठ सिर्फ नहीं है, सिर्फ ग्रंथ नहीं है, सिर्फ वाणी नहीं है। वो ताकत हमारी आध्यात्मिक चेतना में है। हम सम्प्रदायों से बंधे हुए लोग नहीं हैं। समय रहते सम्प्रदाय आते हैं, जाते हैं, पंथ और परम्पराएं विकसित होती हैं। लेकिन हम अध्यात्मता के एक अटूट नाते के साथ जुड़े हुए लोग हैं और वही शक्ति है, जो हमें सतकर्म की ओर प्रेरणा देती है। चैतन्य महाप्रभू भक्ति के प्रणेता थे। भक्ति युग के पुरोधा थे। भक्त बनना आसान नहीं होता है। हाथ में माला है। मुंह में ईश्वर का जाप है। इतने मात्र से दुनिया की नजर में तो हम भक्त बनते हैं। लेकिन भक्त बनना है, तो भक्त वही होता है, जो विभक्त नहीं होता। जहां मुझ में और मुझ को बनाने वाले के बीच कोई विभक्त नहीं है। मैं और वो दोनों ही एकरूप हैं, तब मैं भक्त बनता हूं और चैतन्य महाप्रभु भक्त थे। जहां कोई विभक्त को स्थान नहीं था, वे कृष्ण में डूबे हुए थे। कृष्ण उनमें समाहित हो चुका था और तब जाकर के ये भक्ति आंदोलन खड़ा होता है। भारत की विशेषता रही है कि अनेक आक्रांत आए, शासकीय व्यवस्थाओं में जय-पराजय की घटनाएं घटती रही। अत्याचार, जुल्म चलते रहे। लेकिन उसके बावजूद भी देश की आध्यात्मिक धारा को खरोंच तक नहीं आई।

अगर हम भारत के आजादी के आंदोलन को देखें तो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले महापुरुष हमारे सामने आते हैं। उनका बलिदान, उनका त्याग, तपस्या को कोई कम नहीं आंक सकता है। लेकिन इस बात को हम भूल नहीं सकते कि भारत के आजादी के आंदोलन की पीठिका अगर किसी ने तैयार की थी, तो इस भक्ति आंदोलन ने की थी। चाहे चैतन्य महाप्रभू हों, चाहे आचार्य शंकर देव हों, चाहे तिरुवल्लुवर हों, चाहे बश्वेश्वर हों। अनगिनत ऐसे संत पुरुषों, ऐसे भक्ति मार्गी आध्यात्मिक चेतना से भरे हुए दिव्यांश ऐसे हमारे महात्मा, जिन्होंने भक्ति आंदोलन के माध्यम से भारत की उस आध्यात्मिक धारा को सदा-सर्वदा चेतनमंत रखा। उसको खरोंच तक नहीं आने दी और उसके स्वाभिमान को टिकाए रखा उसके सत्व को टिकाए रखा। और तभी जाकर के जब आजादी के आंदोलन ने विराट रूप लिया, तो ये ताकत उसके साथ एक बहुत बड़ी पीठिका के रूप में काम आ गई।

कभी-कभी हम लोग यहां वैष्णव आंदोलन की चर्चा कर रहे हैं। लेकिन जब हम ‘वैष्‍णव जन तो तेने रे कहिये’ ये जब गाते हैं या सुनते हैं, हम में से कभी किसी को विचार नहीं आया होगा कि जो ‘वैष्‍णव जन तो तेने रे कहिये’ मैं गा रहा हूं जिसको मैं सुनता हूं तो मुझे परिचित लगता है। वो किस भाषा में लिखा गया है। ये सवाल कभी किसी के मन में उठा नहीं है। यहां बैठे हुए लोगों को भी मैं दावे से कहता हूं आपके मन में भी ‘वैष्‍णव जन तो तेने रे कहिये’ ये सुनने के बाद कभी ये सवाल नहीं उठा होगा कि किस भाषा में लिखा गया है? कहने का तात्पर्य यह है कि उसके भाव के साथ हम इतने घुल-मिल गये हैं, उसमें हम इतने विलीन हो चुके हैं कि भाषा हमारे लिए कारण नहीं रही है। भाव ही हैं जो हमें प्रेरणा देते रहते हैं। और ये ‘वैष्‍णव जन तो तेने रे कहिये‘ उसी काल में लिखा गया जब चैतन्य महाप्रभू जिस आंदोलन को चलाते थे, गुजरात की धरती पर नरसिंह मेहता, अस्‍पृश्‍यता के खिलाफ लड़ाई लड़ते थे। और उन्होंने गीत लिखा और महात्मा गांधी को बहुत प्रिय था। लेकिन मैंने कुछ उसमें छेड़छाड़ करने कोशिश की थी कभी। हक़ तो नहीं है मुझे। सैंकड़ों साल पहले जो महापुरुष पैदा हुए, उन्होंने जो बात कही उसको हाथ लगाने का हक़ तो नहीं है, लेकिन लोगों को समझाने के लिए मुझे सरल रहता था। तो मैं कभी उसका उपयोग करता था पहले। मैं कहता था ‘वैष्‍णव जन तो तेने रे कहिये जो पीर पराई जाने रे, पर दुखे उपकार करे तोहे मन अभिमान ना आने रे।‘ तो मैंने कहा कि जो आज जनप्रतिनिधि हैं ये वैष्‍णव जन की जगह प्रतिनिधि शब्द लिख देना चाहिए। ‘जनप्रतिनिधि तेने रे कहिए जो पीड़ पराई जाने रे, पर दुखे उपकार करे तोहे मन अभिमान ना आने रे।‘ वाछ-काछ मन निश्चल राखे, पर धन नवजाले हाथ रे।‘ यानी चार सौ साल पहले भी करप्‍शन की चिंता थी। पर धन नवजाले हाथ रे, लोक प्रतिनिधि तो तेने रे कहिए। वैष्‍णव की बात नरसिंह मेहता जी की बात गांधी जी को क्यों इतनी प्यारी लगी होगी तो मुझे उसके एक-एक शब्द में ताकत नजर आती है। और कृष्णा एक ऐसा विराट रूप, न जाने कितना कुछ लिखा गया है। न जाने कितना कुछ कहा गया है। उसमें शास्त्र की भी अनुभूति होती है और शस्त्र का भी अहसास होता है। कोई ऐसा व्यक्तित्व जिसके हर रूप को भक्त पसंद करते हों और हर रूप की अलग भक्त धारा हो। कुछ लोग हैं जिनको मक्खन चोरी करने वाला ही कन्हैया प्यारा लगता है। तो कुछ लोग हैं जिनको सुदर्शनधारी से नीचे कृष्ण अच्छा नहीं लगता है। उनको तो सुदर्शन चक्रधारी चाहिए। और कुछ लोग हैं जो बांसुरी बजाने वाला, राधा के साथ गोपियों के साथ रास करने वाला कृष्ण पसंद आता है। कितनी विविधता है कितने स्वरूप और हर किसी को मानने वाला एक तबका एक जीवन की ऐसी प्रेरणा दे सकता है, उसका हम अंदाज कर सकते हैं और जिस गीता की रचना हुई, शायद विश्व में ऐसी कोई रचना नहीं है, जो युद्ध भूमि में रची गई हो। यानी निर्लिप्‍त जीवन क्या होता है अपने पास पड़ोस में क्या चल रहा है, उससे भी परे एक व्यक्तित्व की ऊंचाई क्या होती है कि जहां युद्ध होता हो, अपने मरते हों अपने को मरते देखते हो और उस समय एक शास्त्र का सृजन होता हो ये कौन सी ताकत होगी कि जो युद्ध भूमि में पैदा हुई और इसलिए और युद्ध के समय भी जहां जय और पराजय के संघर्ष के बावजूद भी अलिप्तता की चर्चा जिस संदेश में कही गई हो। गीता का संदेश वो ताकत तो देता है। और उस अर्थ में गौड़िया मिशन के द्वारा वैश्णव परम्परा को जीवित रखते हुए और आखिर ये परम्परा जैसा अभी महाराज जी बता रहे थे। दरीद्र नारायण की सेवा, ‘सेवा परमो धर्मः’ यही तो हमारा जीवन का उद्देश्य रहा होना चाहिए। जो औरों के लिए जीना जानता है। जो औरों के लिए अपने आपको आहूत करना जानता है। जो औरों के लिए अपने आपको खपाना जानता है। और हमारे देश के महान महापुरुषों की सारी माला देख लें, उस माला में यही तो संदेश है। हम कभी-कभी एक चिंतन सुनते हैं दुनिया में Live and let Live ‘जिओ और जीने दो।‘ ये देश उससे एक कदम आगे है। ये कहता है जिओ और जीने दो और अगर उसके जीने की क्षमता नहीं है, तो उसको जीने के लिए मदद करो। गुजराती में बहुत अच्छा शब्द है ‘जीवो अने जिवाड़ो।‘ औरों को जीने के लिए हम जो कुछ भी कर सकते हैं करें। सिर्फ उसको उसके नसीब पर न छोड़ें। इस महान विचार और चिंतन को लेकर के हम निकले हुए लोग हैं और वैष्‍णव एक प्रकार से विश्व को अपने-आप में समाने की बात करता है। ‘वसुधैव कुटम्बकम’ ये मंत्र उसी बात का परिचायक है कि जिसमें पूरे ब्रह्माण्ड को अपने में समाने की चर्चा होती है। ऐसी इस महान परम्परा को मैं प्रणाम करता हूं। दुनिया में समय रहते व्यक्ति में जैसे दोष आते हैं, व्यवस्था में जैसे दोष आते हैं, वैसे समाज में भी दोष आते हैं, बहुत सी पुरानी बातें समाज के लिए कालबाह्य होती है। और कभी-कभी उसको लेकर के चलना समाज के लिए बोझ बन जाता है। समाज के लिए संकट बन जाता है। लेकिन बहुत कम समाज ऐसे होते हैं कि जहां अपने अंदर आ रही बीमारियों को पहचान पाएं, अपने अंदर आ रही बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत करें और समाज में भी ऊंचाई देखिए कि समाज के भीतर घुसी हुई बुराइयों के खिलाफ लड़ने वालों को समाज आध्यात्मिक रूप में स्वीकार करता है, उनकी पूजा करता है। भारत में हर सदी में आपने देखा होगा कि समाज की कोई न कोई बुराई के खिलाफ हिन्दू समाज में से ही कोई सुधारक पैदा हुआ। उसने उस समाज को रोका, टोका, बुराइयों से बचने के लिये निकलने के लिए कहा और प्रारंभ में उसको सहना पड़ा। यही तो बंगाल की धरती है। राजा राममोहन राय सती प्रथा के खिलाफ इतनी बड़ी लड़ाई लड़े। ईश्वर चंद विद्यासागर समाज की बुराइयों के प्रति कितनी जागरूकता लाए थे। ये हमारी सदियों पुरानी परम्परा रही है कि हर कालखंड में जब-जब समाज में विकृति आई, समाज में दोष आए बुराइयां आईं। कोई न कोई महापुरुष निकला, इसी समाज में से निकला और उसने समाज को कोसा, डांटा, सुधारने का प्रयास किया और समाज ने उसको महात्मा के रूप में स्वीकार किया, महापुरुष के रूप में स्वीकार किया। दोनों तरफ ताकत नजर आती है। जो समाज सुधार को स्वीकार नहीं करता है। जो समाज कालबाह्य बोझ से मुक्ति पाने का सामर्थ्‍य नहीं रखता है, वो समाज कभी टिक नहीं सकता, जी नहीं सकता, न कभी प्राणवान अवस्था में रह सकता है। एक मुर्दे की तरह वो समय बिताता है।

हमारे समाज में हर कालखंड में, हर भू-भाग में बुराइयों के खिलाफ लड़ने वाले चैतन्य पुरुष मिले हैं हमें। और यही तो हमारी ताकत है। इसी ने तो इस समाज को चैतन्यवत रखा है। और इसलिये गौड़िया संगठन, गौड़िया मिशन को शताब्‍दी का पर्व एक प्रकार से सामाजिक सुधार के आंदोलन की शताब्‍दी है। समाज में भक्ति चेतना जगाने के आंदोलन की शताब्‍दी है। समाज में ‘सेवा परमो धर्म’ को साकार करने का संस्कार अविरत चलाए रखने का, प्रज्जवलित रखने का उस महान कार्य की शताब्‍दी है। ऐसी महान व्यवस्था को, महान परम्परा को इन सभी संतो, महंतो की जिन्दगी को, जिसके कारण ये सतत् परम्परा चली है, मैं आदर पूर्वक नमन करता हूं। चैतन्य महाप्रभू का पुण्य स्‍मरण करता हूं। इस महान परम्परा के सभी योगी पुरुषों का मैं नमन करता हूं। आप सब का बहुत-बहुत धन्यवाद।